Description of Indian Bharatnatyam Dance and types of dance in hindi

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भरतनाट्यम्

भरतनाट्यम नृत्य अब केवल दक्षिण भारत मे नही, उत्तर भारत मे भी एक लोकप्रिय शास्त्रीय नृत्य है।

इसका सम्बन्ध देवदासियों से रहा है और उन्ही के कारण ये आज हमें अपने मूल रूप मे प्राप्त हो सका है । कहते है कि दक्षिण भारत , उत्तर भारत के असमान बाहरी आक्रमणों से सुरक्षित रहा, अत: न तो वहाँ की सँगीत पर बाहरी प्रभाव पड़ा और न तो स्वयं बदला ही । इसलिए भरत नाट्यम् की प्राचिन प्रणाली अब भी देखने को मिलती है । इस नृत्य मे मुद्राओं का बाहुल्य है । इसमे बिखरी हुइ कुछ कथावस्तु भी मिलती है , पर कथक के समान कथानक नहीं होता । इसमें नर्तक अकेले अथवा 3-5 समूह मे नृत्य करता है । भरतनाट्यम् नृत्य मे मृदंग से संगति की जाती है और साथ मे कर्नाटकी गीत गाते हैं । या वाद्यों पर कर्नाटक संगीत की धुनें बजाई जाती हैं ।

 

भरतनाट्यम नृत्य का क्रम

इस नृत्य को मोटे तौर से सात भागों मे बांटा जा सकता है , जिन्हे चरण कहते हैं इनका क्रम इस प्रकार है।–

अल्लारिपु- भरतनाट्यम नृत्य का प्रारम्भ प्रार्थना की मुद्रा से होता है जिसे अल्लारिपु कहते हैं । इसमे पुष्पांजलि अर्पित करने की मुद्रा मे खड़े होते हैं। इसकी विशेषता यह है, की इसमे शरीर के दोनो तरफ के अंग एक से रहते हैं। जिस प्रकार बाँया अंग रहता है, उसी प्रकार दाहिना अंग भी रहता है। कलाकार इस नृत्य को सदैव दर्शक के सामने मुंह करके करता है। तत्पश्चात्

गला, आँख और भौहों के परिचलन से अपने नृत्य द्वारा अपने इष्ट देवता की पूजा करता है, की वह हमे इस कार्य मे सफलता प्रदान करें। यह भरतनाट्यम नृत्य का प्रथम चरण है ।

(2) जेथीस्वरम् नृत्य के दूसरे चरण मे गायन के साथ जो नृत्य किया जाता है उसे जेथीस्वरम् कहते हैं ।

(3) शब्दम् नृत्य के तीसरे चरण में साहित्यिक शब्दों मे इश्वर की वंदना और राजा की स्तुती की जाती है । संगतकार के साथ बैठा गायक गीत गाता है और नर्तकी नृत्य के द्वारा गीत के भाव को प्रदर्शीत करती है।

(4) वर्णम यह भरतनाट्यम नृत्य का महत्वपूर्ण अंग है। नृत्य के इस चरण मे पद संचालन और शरीर के अंगो की स्थितियों, दोनों का पूर्ण समन्वय देखने को मिलता है। ताल, लय की विशेषता एवं विभिन्न प्रकार की मुद्राओं का प्रदर्शन किया जाता है। साधारणतया प्रियतम की प्रतिक्षा मे नायिका का भाव दिखाया जाता है। कलाकार को अपनी कला प्रदर्शित करने मे बड़ी छुट रहती है ।

(5) पदम्- यह भरतनाट्यम नृत्य का पाँचवां चरण है।  इसमे श्रृंगारिक भावजन्य चेष्टाओं की प्रधानता रहती है ।

(6) तिल्लाना- यह नृत्य का छठवाँ चरण है। इसमे घुँघरुओं की तीव्र गती से दर्शकों के मन मे उत्तेजना पैदा की जाती है।

(7) श्लोकम् यह अन्तिम चरण होता है। इसमे संस्कृत के श्लोकों द्वारा भगवान कृष्ण की अराधना की जाती है।

 

भतरनाट्यम् की वेश-भूषा / Dress of Bharatnatyam –

इस नृत्य मे मरहठा  स्त्रीयों की भाँती लम्बी साड़ी पहनते हैं। साड़ी दोनो पैरों से चिपकी रहती है । धोती के ऊपर वाले हिस्से को दुपट्टे की भाँती कंधे पर रखते हुए कमर मे लपेट लेते हैं। कमर मे करधनी तथा गले और बाजू मे आभूषण पहनते हैं। बाल सुन्दर ढंग से बांधते हुए चोटीदार बनाये जाते हैं। मस्तक पर तिलक, भौंहों के ऊपर कपोल के दोनो तरफ बिन्दी तथा होंठो और गालों पर हल्की सी लाली लगाते हैं । इसे स्त्री या पुरूष कोई भी कर सकता है  जब पुरुष नर्तक इस नृत्य का प्रदर्शन करता है तो उसे लोग कचपुरी नृत्य कहते हैं।

इसके  पाँच आसन होते हैं – पद्म, सृष्टि, योग, वीर,और सिध्द ।

घुटने  के मोड़ चार तरह के माने गये हैं -मण्डला, अर्धमण्डला, सममण्डला, और नृत्तमण्डला ।

इसमे 3 पाद विक्षेप होते हैं – अंचित, कुन्चित, उर्धान्चित। गति के चार प्रकार होते है – करण, अंगहार, रेचक और पिंडीवध ।

 

        भरतनाट्यम् में देवदासियों का योगदान

भरतनाट्यम को बनाये रखने में दक्षिण भारत के देवदासियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उनमें यह कला परम्परागत चली आ‌ रही है।भरतनाट्यम के आचार्य ‘नत्तुवन’ कहलाते हैं, जो नि:शुल्क शिक्षा‌ देते हैं। जब उनकी शिष्यायें धन कमाने लगती हैं, तो वे अपने आचार्य ‘नत्तुवन’ को भी अपने अर्जित धन से एक अंश आजीवन देती रहती हैं। देवदासियाँ तीन प्रकार की होती थीं- राजदासी, देवदासी और स्वदासी।

राजदासी- जो दासियाँ राज्य दरबारों मे अपनी कला का प्रदर्शन करती थीं उन्हे राज दासी कहा जाता था।

देवदासी- जो दासियाँ देव मन्दिरों मे नृत्य करती थीं उन्हे देव दासी कहा जाता था ।

स्वदासी- जो दासियाँ कुछ विषेश अवसरों पर ही नृत्य करती थीं उनकी यह कोई पेशा न थी, उन्हे स्वदासी कहा जाता था। राजदासियाँ और देवदासियाँ अपनी जिविका नृत्य द्वारा ही चलाती थीं।

 

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