Nayak Nayika Bhed In Hindi
नायक नायिका भेद
(1).संस्कृत साहित्य में भरत के नाट्य शास्त्र में अधिकांशत: नाटकीय पात्रों के वर्गीकरण प्रस्तुत हुए हैं और वात्स्यायन के कामसूत्र में एतद्विषयक भेद प्रभेद किए गए हैं जिनका संबंध प्राय: स्त्री-पुरुष के यौन व्यापारों से है। “
(2).संस्कृत और हिंदी के परवर्ती लेखकों ने “अग्निपुराण” का स्थिति स्वीकार करते हुए श्रृंगाररस की सीमाओं में ही इस विषय का विस्तार किया है।
(3).इन सीमाओं का, जिनका अतिक्रमण केवल अपवाद के रूप में किया गया है, इस प्रकार समझा जा सकता है:-
- नायक-नायिका-भेद के अंतर्गत स्त्री पुरुष के बीच की सामान्य एवं स्वाभाविक रतिभावना का ही चित्रण किया गया है। अस्वाभाविक अथवा अप्राकृतिक यौन व्यापारों का इस शास्त्र में कोई स्थान नहीं है।
- केवल सुंदर युवक युवतियों के ही प्रेम को स्वीकार किया गया है।
- रसानुभूति में व्याघात न हो, इस दृष्टि से सामाजिक मर्यादा के नियमों का पालन आवश्यक समझा गया है।
- एकपक्षीय प्रेम स्वीकार नहीं किया गया। स्त्री तथा पुरुष दोनों में रतिभावना होनी चाहिए।
- श्रृंगार के बाहर की किसी भी बात का वर्णन निषिद्ध समझा गया है। गर्भवती का वर्णन कवि की निरंकुशता माना गया है। नायिका के मान का कारण नायक की पर स्त्री-रति के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता।
नायक भेद
(1).भरत ने नायक के चार भेद किए हैं : धीरललित, धीरप्रशान्त, धीरोदात्त, धीरोद्धत। ये भेद नाटक के नायक के हैं।
(2).”अग्निपुराण” में इनके अतिरिक्त चार और भेदों का उल्लेख है : अनुकूल, दर्क्षिण, शठ, धृष्ठ।
(3).ये भेद स्पष्ट ही शृंगार रस के आलंबन विभाव के हैं। भोज (11वीं शताब्दी) ने “सरस्वतीकंठाभरण” तथा “शृंगारप्रकाश” में इन दो के अतिरिक्त अन्य अनेक वर्गीकरणों का उल्लेख किया है।
(4).किन्तु उनमें से केवल एक वर्गीकरण ही, जिसका उल्लेख पुरुष के भेदों के रूप में भरत ने भी किया था, परवर्ती लेखकों को मान्य हुआ : उत्तम, मध्यम, अधम।
(5).भानुदत्त (1300 ई.) ने “रसमंजरी” में एक नया वर्गीकरण दिया, जिसे आगे चलकर प्रधान वर्गीकरण माना गया। यह है : पति, उपपति वेशिक।
(6).अनुकूल इत्यादि भेद पति और उपपति के अंतर्गत स्वीकार किए गए। भानुदत्त ने प्रोषित नाम के एक और भेद का उल्लेख किया।
(7).रूप गोस्वामी (1500 ई.) ने “उज्ज्वलनीलमणि” में वैशिक स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कृष्ण को एकमात्र नायक माना है।
(8).हिंदी में नायकभेद के प्रमुख लेखकों ने उपर्युक्त वर्गीकरणों में से प्रथम को छोड़कर शेष को प्राय: स्वीकार कर लिया है।
(9).पति, उपपति, वैशिक को मुख्य वर्गीकरण मानकर अनुकूल, दक्षिण, शठ, घृष्ठ भेदों को पति के अंतर्गत रखा है |
(10).नायक के उत्तम, मध्यम, अधम भेदों को हिंदी में केवल कुछ लेखकों ने ही स्वीकार किया है, जिनमें सुंदर (1631 ई.), तोप (1634 ई.) और रसलीन (1742 ई.) प्रमुख हैं।
(11).नायक के कुछ अन्य भेद इस प्रकार हैं : प्रोषित, मानी, चतुर, अनभिज्ञ। मानी के दो भेद हैं : रूपमानी, गुणमानी।
(12).चतुर के भेद भी दो हैं: वचन चतुर, क्रिया-चतुर। रसलीन ने इन्हीं के साथ स्वयंदूत नायक का भी कथन किया है।
(13).हिंदी के नायक-नायिका-भेद संबंधी साहित्य का निर्माण अधिकांशत: रीतिकाल में हुआ है।
(14).नायक-नायिका-भेद की यह काव्यसरिता दो सशक्त धाराओं के संगम का परिणाम है।
(15).इनमें से पहली धारा है साहित्यशास्त्र एवं नायक-नायिका-भेद संबंधी शास्त्रीय ग्रंथों की, जिसका आरंभ भरत के “नाट्शास्त्र” से होता है; तथा दूसरी धारा है कृष्ण और गोपियों की श्रृंगार क्रीड़ाओं के वर्णन की, जो “हरिवंश”, “पद्म”, “विष्णु” “भागवत” तथा “ब्रह्मवैवतं” पुराणों की उपत्यकाओं में बहती हुई और उमापतिधर, जयदेव, चंडीदास, विद्यापति, मीरा, नरसिंह मेहता तथा सूरदास आदि अनेक भक्त कवियों की मधुर वाणी से विलसित होती हुई, निम्बार्क, वल्लभ तथा चैतन्य जैसे महान आचार्यों के समर्थन से संपुष्ट हुई है।
नायिकाभेद (संस्कृत और हिंदी)
(1).भरत के अनुसार नायिका के आठ भेद हैं : वासकज्जा, विरहोत्कंठिता, स्वाधीनपतिका, कलहांतरिता, खंडिता, विप्रलब्धा, प्रोषितभर्तृका, अभिसारिका।
(2).इसे हम परिस्थितिभेद कहेंगे। परवर्ती लेखकों के अनुसार, जिसे “प्रकृति-भेद” कहा गया है, नायिका तीन प्रकार की होती है: उत्तमा, मध्यमा, अधमा।
(3).भानुदत्त ने उपर्युक्त तीनों वर्गीकरणों के अतिरिक्त एक नए वर्गीकरण का उल्लेख किया है, जिसे आगे चलकर हिंदी के अधिकांश लेखकों ने स्वीकार किया।
(4).वह है, : नायिका : अन्यसंभोगदु:खिता, वक्रोक्तिगर्विता, मानवती। वक्रोक्तिगर्विता : प्रेमगर्विता, सौंदर्यगर्विता।
(5).इसके अतिरिक्त भानुदत्त ने षोडश भेद वर्गीकरण में मुग्धा एवं ऊढा के कुछ नवीन उपभेदों का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार हैं, मुग्धा : ज्ञातयौवना, अज्ञातयौवना।
(6).हिंदी के लेखकों ने भानुदत्त का ही सर्वाधिक अनुसरण किया है। शिंग भूपाल एवं विश्वनाथ (साहित्यदर्पण, 14वीं शताब्दी) ने सामान्या के दो उपभेदों का उल्लेख किया है : रक्ता, विरक्ता।
(7).विश्वनाथ ने मुग्धा के पाँच, मध्या के पाँच, तथा प्रगल्भा के छह प्रभेदों का उल्लेख किया है, किंतु नायिका की संख्यागणना में इन प्रभेदों को संमिलित नहीं किया।
(8).गोस्वामी ने केवल “हरिवल्लभाओं” को नायिका मानते हुए सामान्या को स्वीकार नहीं किया।
(9).उन्होंने मुग्धा, मध्य, प्रगल्भा भेद परकीया के अंतर्गत भी माने हैं। रूप गोस्वामी द्वारा उल्लिखित मुग्धा के छ:, मध्या के चार तथा प्रगल्भा के सात प्रभेद विश्वनाथ कृत प्रभेदों से मिलते जुलते हैं।