भारतीय रंगमंच का इतिहास History Of Indian Theater In Hindi

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History Of Indian Theater In Hindi

भारतीय रंगमंच

  • भारत में रंगमंच का इतिहास बहुत पुराना है। ऐसा समझा जाता है कि नाट्यकला का विकास सर्वप्रथम भारत में ही हुआ।
  • ऋग्वेद के कतिपय सूत्रों में यम और यमी, पुरुरवा और उर्वशी आदि के कुछ संवाद हैं। इन संवादों में लोग नाटक के विकास का चिह्न पाते हैं।
  • अनुमान किया जाता है कि इन्हीं संवादों से प्रेरणा ग्रहण कर लागों ने नाटक की रचना की और नाट्यकला का विकास हुआ। यथासमय भरतमुनि ने उसे शास्त्रीय रूप दिया।

भारतीय रंगमंच का इतिहास

  • कुछ विद्वानों के अनुसार भारतीय रंगमंच का उदय 15वीं शताब्दी ईसा पूर्व में हुआ। ऋग्वेद जैसा वैदिक पाठ यज्ञ समारोहों के दौरान नाटक नाटकों के अभिनय का प्रमाण प्रदान करता है।
  • ग्रंथों में वर्णित संवादों में एक व्यक्ति के एकालाप से लेकर तीन व्यक्ति के संवाद जैसे इंद्र, इंद्राणी और वृषकपि के बीच संवाद शामिल हैं।
  • नंदिकेश्वर जिन्होंने अभिनय दर्पण लिखा था। ‘द मिरर ऑफ जेस्चर’ जो स्वयं भरतर्णव नामक 400 श्लोकों के एक लंबे ग्रंथ के संक्षिप्तीकरण पर आधारित था,  कुछ विद्वानों के अनुसार ऐसा लगता है कि यह भरत से पहले का है।
  • नंदिकेश्वर की शिक्षाओं का सबसे ठोस उदाहरण भास की बदौलत बचा है।
  • नाट्यशास्त्र, जिसकी तिथि 200 ईसा पूर्व है, हालांकि विभिन्न शिक्षकों का उल्लेख करता है और उन्हें आचार्य कहता है, लेकिन उनका नाम नहीं लेता है, लेकिन यह अभी भी नाटककार कोहाला के एक खोए हुए ग्रंथ के संदर्भ में समाप्त होता है।

भारत के आदिकालीन रंगमंच

  • सीतावंगा की गुफा के देखने से पुराने नाट्यमंडपों के स्वरूप का कुछ अनुमान हो जाता है। यह गुफा १३.८ मीटर लंबी तथा ७.२ मीटर चौड़ी है।
  • भीतर प्रवेश करने के लिए बाईं ओर से सीढ़ियाँ हैं, जिनसे कदाचित अभिनेता प्रवेश करते थे। भीतरी भाग में रंगमंच की व्यवस्था है।
  • यह २.३ मीटर चौड़ी तीन सीढ़ियों (चबूतरों) से बना है, जो एक दूसरे से ७५ सेंमी. ऊँची हैं।
  • चबूतरों के समने दो छेद हैं, जिनमें शायद बाँस या लकड़ी के खंभे लगाकर पर्दें लगाए जाया करते थे। दर्शकों के लिए जो स्थान है, वह ग्रीक ऐंफीथिएटर की भाँति सीढ़ीनुमा है। यहाँ ५० व्यक्ति बैठ सकते हैं।
  • यह आदिकालीन रंगमंच का स्वरूप भी ऊपर वर्णित विकसित स्वरूप से मेल खाता है। भरत नाट्यशास्त्र से भी हमें नाट्यमंडप के प्राचीन स्वरूप का संकेत मिलता है।
  • आदिवासियों के मंडप गुफारूपी (शैलगुहाकारी) हुआ करते थे, किंतु आर्य लोग अपनी आश्रम सभ्यता के अनुरूप अस्थायी तंबूनुमा नाट्यमंडपों से ही काम चलाया करते थे।
  • भरत नाट्यशास्त्र पहली अथवा दूसरी शती ई. में संकलित हुआ समझा जाता है। भरत ने आदिवासियों तथा आर्यों दोनों के नाट्यमंडपों के आकार को अपनाया है।

वर्तमान भारतीय रंगमंच

  • आधुनिक भारतीय नाट्य साहित्य का इतिहास एक शताब्दी से अधिक पुराना नहीं है।
  • इस्लाम धर्म की कट्टरता के कारण नाटक को मुगल काल में उस प्रकार का प्रोत्साहन नहीं मिला जिस प्रकार का प्रोत्साहन अन्य कलाओं को मुगल शासकों से प्राप्त हुआ था।
  • इस कारण मुगल काल में के दो ढाई सौ वर्षों में भारतीय परंपरा की अभिनयशालाओं अथवा प्रेक्षागारों का सर्वथा लोप हो गया।
  • परन्तु राम लीला आदि की तरह लोक कला के माध्यम से भारतीय थिएटर जीवित रही अंग्रेजों का प्रभुत्व देश में व्याप्त होने पर उनके देश की अनेक वस्तुओं ने हमारे देश में प्रवेश किया।
  • उनके मनोरंजन के निमित्त पाश्चात्य नाटकों का भी प्रवेश हुआ। उन लोगों ने अपने नाटकों के अभिनय के लिए यहाँ अभिनयशालाओं का संयोजन किया, जो थिएटर के नाम से अधिक विख्यात हैं।
  • इस ढंग का पहला थिएटर, कहा जाता है, पलासी के युद्ध के बहुत पहले, कलकत्ता में बन गया था।
  • एक दूसरा थिएटर १७९५ ई. में खुला। इसका नाम ‘लेफेड फेयर’ था। इसके बाद १८१२ ई. में ‘एथीनियम’ और दूसरे वर्ष ‘चौरंगी’ थिएटर खुले।
  • इस प्रकार पाश्चात्य रंगमंच के संपर्क में सबसे पहले बंगाल आया और उसने पाश्चात्य थिएटरों के अनुकरण पर अपने नाटकों के लिए रंगमंच को नया रूप दिया।
  • दूसरी ओर बंबई में पारसी लोगों ने इन विदेशी अभिनयशालाओं के अनुकरण पर भारतीय नाटकों के लिए, एक नए ढंग की अभिनयशाला को जन्म दिया।
  • पारसी नाटक कंपनियों ने रंगमंच को आकर्षक और मनोरंजक बनाकर अपने नाटक उपस्थित किए।

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