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Time theory of ragas I Raag aur samay I Sandhi Prakash Parmel Preveshak Raag

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Time theory of raags in hindi

 

राग और समय

  • भारतीय संगीत की यह प्रमुख विशेषता है कि प्रत्येक राग के गाने-बजाने का एक निश्चित समय माना गया है। शास्त्रकारों ने अपने अनुभव तथा मनौवैज्ञानिक आधार पर विभिन्न रागों के पृथक-पृथक समय निश्चित किये हैं।
  • भारतीय संगीत में निम्नलिखित चार सिद्धांतों के आधार पर रागों का समय निश्चित किया है-

(1)अध्वदर्शक स्वर (2) वादीसंवादी स्वर

 (3) पूर्वांगउत्तरांग (4) रे, , रे, ,और , नि

 (1) अध्वदर्शक स्वर

उत्तर भारतीय संगीत में मध्यम स्वर को बडा महत्व  प्राप्त है। इस स्वर के द्वारा हमें यह मालूम पड़ता हैं कि किसी राग का गायन वादन दिन हो सकता है अथवा रात्रि, इसलिये मध्यम को अध्वदर्शक स्वर कहा गया है।

  • 24 घंटे के समय को दो बराबर भागों में विभाजित किया गया है। सर्वसम्मति से प्रथम भाग को पूर्वार्ध जिसका समय 12 बजे दिन से 12 बजे रात्रि तक और द्वितीय भाग को उत्तरार्ध जिसका समय 12 बजे रात्रि से 12 बजे दिन तक माना जाता है।
  • पहले भाग की अवधि मेंअर्थात पूर्वार्ध में तीव्र म और उत्तरार्ध में शुद्ध मध्यम की प्रधानता पाई जाती है। उदाहरणार्थ भैरव और बहार रागों को लिजिए दोनों में शुद्ध म का प्रयोग किया जाता हैं। इनका निश्चित समय मालूम न होने पर कम से कम इतना कह.सकते हैं कि इनका गायन समय 12 बजे रात्रि के बाद से से 12 बजे दिन की अवधि में किसी समय होगा।
  • इसी प्रकार पूर्वी, मारवा, मुलतानी आदि रागों को ले लिजिये इनके तीव्र मध्यम का प्रयोग किया जाता हैं। इनके गायन समय का स्थूल अनुमान अध्वदर्शक स्वर की सहायता से सरलतापूर्वक लगाया जा सकता है।
  • इस नियम के अनेक अपवाद भी है उदाहरणार्थ बसंत राग को ले लिजिए। इसमें दोनों मध्यम अवश्य प्रयोग होते है, लेकिन तीव्र मध्यम प्रधान रहता है। कुछ लोग तो शुद्ध मध्यम लगाते ही नहीं। इस दृष्टि से इसका गायन- वादन पूर्वार्ध में होना चाहिये, किन्तु ये रात्रि के प्रथम पहर में गाया जाता है जो उत्तरार्ध में आता है। इसी प्रकार परज, हिंडौल, तोड़ी, भीमपलासी, बागेश्वरी, दुर्गा, देश आदि राग उपर्युक्त नियम का खण्डन करते है।

(2) वादी संवादी स्वर 

जिस प्रकार दिन के दो भाग किये गये उसी प्रकार सप्तक के भी दो भाग किये गये है – उत्तरांग- पूर्वाग। संख्या की दृष्टि से सा, रे, ग, म पूर्वाग और प,ध,नि, सां उत्तरांग मे आते है।

  • सर्वप्रथम शास्त्रकारों ने यह नियम बनाया होगा कि जिन रागों का वादी स्वर सा, रे, ग और म में से हो उनका गायन समय दिन के पहले हिस्से के भीतर और जिन रागों का वादी स्वर प, ध, नि, सां में से हो उनका गायन दिन के दूसरे हिस्से के भीतर होना चाहिये।
  • उपर्युक्त नियम बनाने के बाद हमारे शास्त्रकारों ने कुछ अपवाद भी पाये होंगे। अतः उन्हें इस नियम में संशोधन करना आवश्यक हो गया होगा। उदाहरणार्थ भीमपलासी राग में वादी मध्यम और संवादी षडज है। सप्तक का पूर्वाग स से म तक मानने से दोनों वादी- संवादी सप्तक के पूर्वाग मे आ जाते है, किन्तु यह उचित नहीं।
  • राग का दूसरा नियम यह भी है अगर वादी स्वर सप्तक के पूर्व अंग से है तो संवादी स्वर उत्तर अंग से होगा। अगर वादी स्वर उत्तर अंग से है तो संवादी स्वर पूर्व अंग से होगा। इस दृष्टि से भीमपलासी राग और भैरवी राग इस नियम के प्रतिकूल है दोनों रागों मे वादी म और संवादी सा है। उपर्युक्त नियमानुसार भैरवी भी भीमपलासी के समान पूर्वाग प्रधान राग होना चाहिये और उसका गायन समय 12 बजे दिन से 12 बजे रात्रि के भीतर किसी समय होना चाहिये, किन्तु जैसा कि हम सभी जानते है कि भैरवी प्रातः कालीन राग है। ठीक इसी प्रकार की कठिनाई अनेक प्रकार के रागों में देखने को मिलती हैं। इस कठिनाई को दूर करने के लिये उपर्युक्त नियम में यह संशोधन किया गया कि सप्तक के दोनों अंगों के क्षेत्र को बढा दिया गया। पूर्वाग सा से प तक और उत्तरांग म से तार सा तक माना गया इस प्रकार म और प दोनों अंगों में समान रूप से माने गये। इससे यह लाभ  हुआ कि जिन रागों में सा म अथवा म सा वादी- संवादी  है उनका एक स्वर पूर्वाग मे और दूसरा उत्तरांग में माना गया।
  • वादी संवादी दोनों सप्तक के एक हिस्से से नहीं होने चाहिए। राग का यह नियम है कि वादी स्वर सप्तक के पूर्वाग में आता है तो उसका गायन समय दिन के पूर्व अंग में होगा और अगर उत्तरांग में आता है तो उसका गायन समय दिन के उत्तर अंग में होगा।

(3) पूर्वाग – उत्तरांग –

जिस राग का पूर्वाग अधिक प्रधान होता है वह 12 बजे दिन से 12 बजे रात्रि तक की अवधि में और जिस राग का उत्तर अंग अधिक प्रबल होता है वह 12 बजे रात्रि से 12 बजे दिन तक की अवधि में किसी समय गाया बजाया जाता है उदाहरणार्थ भूपाली,केदार, दरबारी, कान्हडा, भीमपलासी आदि पूर्वाग प्रधान राग दिन के पूर्व अंग में तथा सोहनी,बसन्त,हिन्डोल,बहार,जौनपुरी आदि उत्तरांग प्रधान राग दिन के उत्तर अंग में गाये बजाये जाते है। इन्हें क्रमशः पूर्व राग और उत्तर राग भी कहते है।

  • इस सिद्धांत के भी कुछ राग अपवाद स्वरूप है, जैसे- राग हमीर। स्वरूप की दृष्टि से यह उत्तरांग प्रधान राग है,किन्तु दिन के पूर्व अंग में गाया जाता है।

(4) रे ध कोमल,रे ध शुद्ध तथा ग नि कोमल वाले राग

सम्पूर्ण रागों को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है, रे ध कोमल ,रे ध शुद्ध और कोमल ग नि वाले राग। नींचे इन तीनों वर्गों के रागों पर क्रमशः प्रकाश डाला जा रहा है-

(अ) रे ध कोमल वाले अथवा सन्धि प्रकाश राग

जिन रागों में रे ध कोमल स्वर लगते है,वे सन्धि प्रकाश राग कहे गये है, क्योंकि उनका गायन उस समय होता है जबकि दिन और रात्रि( प्रकाश) की सन्धि होती है। दूसरे शब्दों में सूर्यास्त और सूर्योदय का समय सन्धि प्रकाश काल कहलाता है।

  • भारत में सूर्योदय और सूर्यास्त का समय ऋतु के अनुसार बदलता है। अतः सन्धि प्रकाश का समय 4 बजे से 7 बजे तक प्रात: काल और 4 बजे से 7 बजे सायंकाल माना जाता है। इस काल की अवधि में पूर्वी,मारवा, और भैरव थाट के सभी राग गाये जाते है जैसे भैरव, कालिंगड़ा,जोगिया,ललित,रामकली, श्री,मारवा, पूर्वी,पूरियाधनाश्री आदि।
  • प्रत्येक सन्धि प्रकाश राग में ऋषभ कोमल तो होता ही  हैं,साथ ही साथ गंधार भी शुद्ध पाया गया है। अतः रे – ध  कोमल के बजाय अगर रे कोमल ग शुद्ध सन्धि प्रकाश रागों की विशेषता कही जाये तो अपेक्षाकृत अधिक तर्कयुक्त होगा।
  • अध्वदर्शक स्वर के अन्तर्गत पीछे हम बता चुके है कि प्रातः कालीन और संध्या कालीन संधिप्रकाश रागों मे म कितना महत्त्वपूर्ण है। पीछे यह भी बता चुके हैं कि प्रात: कालीन सन्धि प्रकाश रागों मे शुद्ध म और संध्याकालीन सन्धिप्रकाश रागों तीव्र म प्रधान होता है। इस आधार पर हम सरलता से यह पता लगा सकते है कि अमुक सन्धि प्रकाश राग संध्याकालीन है या प्रात:कालीन।

(ब) रे ध शुद्ध वाले राग

रे कोमल ग शुद्ध वाले रागों के पश्चात रे ,ध शुद्ध वाले राग गाने की बारी आती है। इस.वर्ग में बिलावल, खमाज और कल्याण थाट वाले राग आते है, जैसे बिलावल, देशकार, भूपाली, गौड़, सारंग, खमाज,बिहाग, कल्याण,केदार इत्यादि। इस वर्ग के रागों मे विशेषता यह पाई जाती है कि इनमें सदैव शुद्ध गंधार प्रयोग किया जाता है। कारण जैसा कि हम जानते है कि इनमें गंधार कोमल होने से उस राग की गणना ग, नि कोमल वाले रागों के वर्ग में हो जायेगी,अतः इसे रे, ध शुद्ध के स्थान पर रे ग शुद्ध राग वाला वर्ग ही कहा जाना चाहिए, इससे गंधार को अपना उचित स्थान प्राप्त हो जायेगा और पहले वर्ग के रागों मे समानता भी हो जायेगी।

  • इस वर्ग के रागों का समय 7 से 10 बजे तक सुबह तथा 7 से 10 तक रात्रि माना गया है। कुछ विद्वान इस वर्ग की अवधि 7 से 12 बजे तक मानते है। पहला मत अधिक ठीक मालूम पडता है,क्योंकि 7 से 12 मानने से तोड़ी तथा उसके प्रकार 12 के बाद गाये जायेंगे,किन्तु प्रचार में ऐसा कुछ नहीं है। तोड़ी राग  दिन के 12 बजे के पूर्व ही गाया जाता है।
  • रे, ग शुद्ध वाले राग के वर्ग में म का स्थान कम नहीं है। 7 से 10 बजे तक सुबह गाये जाने वाले रागों में शुद्ध मध्यम तथा इसी समय रात्रि में गाये जाने वाले रागों मे तीव्र मध्यम की प्रधानता मानी गई है, जैसे – बिलावल।

(स) ग, नि कोमल वाले राग

दूसरे रागों के पश्चात ग,नि कोमल वाले रागों का समय.आता है। इनकी अवधि दिन और रात में 10  से 4 बजे तक है, कुछ विद्वान 12 से 4 बजे तक मानते हैं, किन्तु प्रथम मत अधिक उपयुक्त है। पहला कारण ये कि इस वर्ग में चार थाटो के राग आते है – तोड़ी,आसावरी, भैरवी और काफी। इसलिये इसकी अवधि अन्य वर्गों की अपेक्षा बडी होनी चाहिये। दूसरा कारण यह है कि तोड़ी, भैरवी, देशी आदि इस वर्ग के राग 12 बजे के पूर्व ही शुरू हो जाते है। अतः इस वर्ग के रागों का समय 10 बजे ही माना जाना चाहिए। पट्टदीप राग जिसका गायन समय दिन का चौथा पहर है, इस नियम का अपवाद है इसमें ग तो कोमल है ,किन्तु नि शुद्ध है। इसी प्रकार राग मधुवन्ती भी उपर्युक्त नियम का अपवाद है। इसमें गंधार कोमल है किन्तु निषाद शुद्ध है। अतः ग नि कोमल वाले राग के वर्ग को केवल कोमल ग वाला वर्ग कहा जाये तो अधिक उपयुक्त होगा। अतः स्वर की दृष्टि से हम सभी रागों को तीन वर्ग में विभाजित कर सकते है।

(1) रे कोमल ग शुद्ध वाले राग

(2) रे – ग शुद्ध वाले राग

(3) ग कोमल वाले राग

तेरहवीं शताब्दी में पं शारंगदेव ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ संगीत रत्नाकर में प्रत्येक वर्ग के रागों का समय निश्चित किया था। आजकल कुछ राग ऋतु कालीन माने जाते है जैसे वर्षा ऋतु में मल्हार के प्रकार ,बसंत ऋतु में बसंत और बहार और ग्रीष्म ऋतु में सारंग और उसके प्रकार।

Parmel Praveshak Raag / परमेल प्रवेशक राग क्या है ? –

परमेल प्रवेशक राग – वे राग जो एक थाट से दूसरे थाट में प्रवेश कराते हैं , परमेल – प्रवेशक राग कहलाते हैं , जैसे मुलतानी , जैजैवन्ती आदि । यह 2 थाटों के बीच का राग होता है । इसलिये इनका गायन – समय दूसरे थाट के रागों के ठीक पहले होता है ।

सायंकालीन संधिप्रकाश रागों के ठीक पहले मुलतानी राग गाया जाता है । यह तोड़ी थाट से पूर्वी और मारवा थाट के रागों में प्रवेश कराता है । इसलिए मुलतानी को परमेल – प्रवेशक राग कहा गया है ।

राग जयजयवंती , खमाज थाट से काफी थाट के रागों में प्रवेश कराता है । खमाज थाट में ग शुद्ध होता है और काफी थाट में ग कोमल होता है और राग जयजयवंती में शुद्ध तथा कोमल दोनों ग लगते हैं , इसलिये इसे परमेल प्रवेशक कहा गया है

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