Shastriya Sangeet Aur Chitrapat Sangeet

Shastriya Sangeet Aur Chitrapat Sangeet mein kya antar hai ?

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Shastriya Sangeet Aur Chitrapat Sangeet in Hindi

शास्त्रीय संगीत हम उसे कहते है जिसके कुछ विशेष नियम होते हैं। उन नियमो का पालन सदैव आवश्यक होता है। इसी प्रकार चित्रपट संगीत हम उसे कहेंगे जिसका प्रयोग किसी चित्रपट (फिल्म) में हुआ हो। इस दृष्टि से बैजू बावर का शास्त्रीय गीत राग देशी में निबद्ध आज गावत मन मेरा ,” झनक झनक पायल बजे का राग मुलतानी में निबद्ध गिरधर गोपाल तथा झनक झनक पायल बाजे आदि गीत सभी चित्रपट संगीत कहलायेंगे। किन्तु नहीं चित्रपट संगीत की कुछ अपनी निजी विशेषतायें होती यही जो बड़ी सरलता से पहचानी जा सकती है। हलके – फुलके गीत आकर्षक रचना सस्ते दंग से शब्द किन्तु भाव से भरे हुये वाद्यवृंद का उत्कृष्ट प्रयोग चटकीली बंदिशे मधुर कंठ द्वारा गाया जाना आदि चित्रपट संगीत के प्रमुख लक्षण हैं। सारांश में चित्रपट संगीत का मुख्या उद्देश्य यह है कि सुनने में मधुर एवं शीर्घ प्रभाव डालने वाला हो। इसमें स्वर ,ताल ,शब्द ,राग आदि का कोई बंधन नहीं होता। इसमें अधिकतम दादरा और कहरवा तालों का प्रयोग होता है कुछ फिल्म गीत अन्य तालों में भी पाये जाते हैं।

शास्त्रीय संगीत में नियमों का पालन अनिवार्य होता है। स्वर ,लय ,तालबद्ध होना ,रंग के अनुकूल स्वरों को लगाना ,गाने – बजाने में क्रम होना , आलाप -तान ,बोलतान ,सरगम आदि की तैयारी और सफाई के साथ उच्चारण करना आदि शास्त्रीय संगीत के मुख्य नियम हैं। इन्हे मानते हुये आनंद की सृस्टि करना हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का उद्देश्य है। अधिकांश व्यक्तियों के साथ यह होता है कि उन्हें संगीत के इन नियमो के सिखने में ही इतना समय बीत जाता है कि उसके उद्देश्य (रंजकता )तक नौबत नहीं आती या यों कहिये कि वे संगीत के व्याकरण के चक्कर में इतना फँस जाते हैं कि वह उनका उद्देश्य बन जाता है और वास्तविक उद्देश्य से बहुत दूर हो जाते हैं इसलिये ऐसे अधिकांश गायकों में रस नहीं रहता।उनमे केवल गलाबाजी दिखाई पड़ती है। दूसरी ओर चित्रपट संगीत में कोई बंधन नहीं रहता और रंजकता ,मधुरता एवं भावात्मक सौंदर्य की सृस्टि ही उसका एकमात्र उद्देश्य रहता है। गाना गाने के लिये कुशल कलाकार आदि निमंत्रित किये जाते हैं इन सब व्यक्तियों का सम्मिलित प्रयत्न फिल्म में अभिनय के साथ प्रदर्शित किया जाता है। अभिनय और गाने का ऐसा सम्बन्ध जुड़ जाता है कि जब कभी उस गाने को सुनते हैं तो उससे सम्बन्ध फिल्म की भूमिका याद आ जाती है। अगर वह चित्रपट देखी हुई रहती है तो श्रोता को अधिक आनन्द आता है। शास्त्रीय संगीत में इस प्रकार का अभिनय तो नहीं रहता और जो कुछ (हाथ – पैर चलाना ,मुँह बनाना आदि ) रहता भी है तो उसका प्रभाव श्रोताओं पर अच्छा नहीं पड़ता।

सबसे मुख्य बात यह है कि शास्त्रीय संगीत की उचित प्रशंसा करने के लिये संगीत का थोड़ा – बहुत ज्ञान आवश्यक होता है। हम चाहे उसकी बारीकियों को न समझे ;किन्तु कम से कम इतना तो जानना आवश्यक है कि राग – गायन में आलाप – तान क्या है। शास्त्रीय संगीत में इनकी कितना महत्व है। गायक अपनी कल्पना शक्ति के आधार पर नये – नये स्वर – समूहों की रचना करता है और उसे रत्येक स्थल पर लय – ताल आदि की सिमा में निबद्ध रहना परता है ,इत्यादि -इत्यादि। इसलिये शास्त्रीय संगीत का आनंद लेने के लिये उसके विद्याओं का ज्ञान आवश्यक है। किन्तु चित्रपट अथवा भाव – संगीत की प्रंशसा के लिये संगीत के लेशमात्र ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती। इसलिये साधारण जनता चित्रपट संगीत से अधिक पभावित होता है।

चित्रपट संगीत लय प्रधान संगीत है ,इसलिये दादरा और कहरवा ताल अधिक प्रयोग किये जाते हैं। साधारण स्तर के लोगो को चलती – फिरती लय शीघ्र  प्रभावित करती है। दूसरी ओर शास्त्रीय संगीत में लय की तुलना में स्वर प्रधान होता है। यह अवश्य है कि लय का प्रभाव क्षणिक और स्वर का स्थायी होता है। अतः शास्त्रीय संगीत की प्रशंसा अथवा मूल्यांकन वही व्यक्ति कर सकता है जिसे  संगीत की थोड़ी – बहुत शीक्षा मिली हो अथवा ज्ञान हो। अतः शास्त्रीय संगीत के प्रचार के लिये यह आवश्यक है कि अधिकांश जनता को संगीत की थोड़ी बहुत शीक्षा दी जाय। दूसरे शब्द में तानसेन नहीं अपितु कानसेन तैयार किये जाँय।

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