Nibaddha and Anibaddha gaan I Raagaallap I Roopkaallap Allaptigaan in Hindi is described in this post of Saraswati sangeet sadhana .
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Nibaddha And Anibaddha gaan
निबद्ध–अनिबद्ध गान–
- जो रचनाएँ ताल में बँधी हो उन्हें निबद्ध गान और जो ताल में न बँधी हो केवल स्वरबद्ध हो उन्हें गान कहते है।
- प्राचीन काल में प्रबंध, वस्तु तथा रूपक और आधुनिक काल में ध्रुपद, धमार, ठुमरी,ख्याल आदि निबद्ध गान के अन्तर्गत आते है। प्रबन्ध, वस्तु तथा रूपक के विभिन्न खण्डों को धातु (उदग्राह,ध्रुव, मेलापक, अन्तरा और आभोग) और ध्रुपद, ख्याल आदि के विभिन्न खण्डन क्रमशः स्थाई, अन्तरा, संचारी और आभोग कहते है।
- प्राचीन रागालाप, रूपकालाप, आलप्तिगान, स्वस्थान नियम का आलाप अनिबद्ध गान (ताल रहित) के अन्तर्गत आता है। आधुनिक आलाप भी अनिबद्ध गान है।
निबद्ध गान –
प्राचीन आधुनिक
प्रबंध ध्रुपद
वस्तु धमार
–रूपक, आदि ख्याल –
ठुमरी
अनिबद्ध गान –
प्राचीन। आधुनिक
रागालाप आकार और नोम तोम का आलाप
रूपकालाप
आलप्तिगान –
स्वस्थान नियम
Raagaallap/ रागालाप–
राग के स्वरों का विस्तार, जिसमें राग के 10 लक्षणों-ग्रह, अंश, मंद्र, तार, न्यास, अपन्यास, अल्पत्व, बहुत्व, षाडवत्व और ओडवत्व का पालन होता था, रागालाप कहलाता था। इसमें आलाप का पूर्व गायक राग का पूर्ण परिचय देता था।
Roopkaallap/रूपकालाप–
यह प्राचीन आलाप-विधि का दूसरा प्रकार था। इसमें रागालाप के सभी लक्षणों का पालन होता था, किन्तु प्रबंध के धातु के समान रूपकालाप के खण्ड करने पडते थे,जो रागालाप में नहीं होता था। दूसरे, रागालाप में गायक को आलाप के पूर्व उस राग की व्याख्या करनी पड़ती थी, किन्तु रूपकालाप में इसकी आवश्यकता नहीं पडती थी, क्योंकि वह स्वयं शब्द व ताल रहित प्रबंध के समान स्पष्ट मालूम पडता था। तीसरे, रूपकालाप, रागालाप की अपेक्षा विस्तृत होता था, इस प्रकार रूपकालाप, रागालाप की दूसरी सीढी थी।
Aallaptigaan/आलप्तिगान–
रूपकालाप के आलप्तिगान का स्थान आता है। इसमे राग के सभी नियमों का पालन करते थे और आविर्भाव- तिरोभाव भी दर्शाते थे।
Swastha niyam ka allap / स्वस्थान नियम का आलाप–
प्राचीन काल में आलाप के एक विशेष नियम को ‘स्वस्थान नियम’ कहते थे। उसमें राग के लक्षणों का पालन करते हुए आलाप को मुख्य चार भागों में विभाजित कर दिया जाता था, जिसे स्वस्थान कहते थे। चारों स्वस्थानों का प्रयोग क्रम से एक दूसरे के बाद होता था। ‘संगीत रत्नाकर’ में इनका वर्णन इस प्रकार किया गया है-
- प्रथम स्वस्थान में द्वयर्ध स्वर ( अंश या वादी से चौथा स्वर) के नींचे स्वरो में आलाप करना पड़ता था और मंद्र सप्तक में इच्छानुसार विस्तार किया जा सकता था।
- दूसरे स्वस्थान में द्वयर्ध स्वर तक आलाप किया जाता था।
- तीसरे स्वस्थान मे अर्धस्थित स्वरों में आलाप किया जाता था।
- अंतिम स्वस्थान में द्विगुण (आठवां स्वर) और उसके ऊपर के स्वरों तक आलाप करने के बाद स्थाई स्वरों पर न्यास किया जाता था। इस प्रकार स्वस्थान नियम का आलाप समाप्त होता था। आजकल इसका प्रचार नहीं है।
अंश, स्थाई, या वादी से चौथा स्वर द्वयर्ध और आठवां स्वर द्विगुण कहलाता था। द्वयर्ध और द्विगुण के बीच के स्वरों को अर्धस्थित स्वर कहते थे।
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