anibaddha & nibaddha gaan in indian music.

Nibaddha Gaan Anibaddha Gaan Aalaptigan in Indian classical music

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Defination of Nibaddha Gaan & Anibaddha Gaan , aalaptigan  in Indian classical music in hindi is described in this post of Saraswati sangeet sadhana .

 Ninaddha gaan / निबद्ध गान की परिभाषा  –

जो संगीत –सामग्री  तालबद्ध होती है ,उसे निबद्ध गान कहते हैं । आधुनिक काल में प्रचलित गीत जैसे –ध्रुपद ,धमार ,ख्याल ,टप्पा ,ठुमरी आदि तथा प्राचीन काल के प्रबंध ,वस्तु ,रूपक आदि निबद्ध गान कहलाते हैं । जिस प्रकार आधुनिक गीत के दो खंड –स्थाई और अंतरा माने गये हैं ,उसी प्रकार प्राचीन गीतो के पाँच खंड माने जो थे –उदग्राह ,ध्रुव ,मेलापक ,अंतरा और आभोग ।

Anibaddha Gaan / अनिबद्ध गान की परिभाषा –

जो सामग्री ताल में न बँधी हो केवल स्वरबद्ध हो ,उसे अनिबद्ध गान कहते हैं ,जैसे आलाप । मुख्यत: आलाप का प्रयोग गीत अथवा गत के पूर्व होता हैं प्राचीन काल में आलाप के चार प्रकार माने जाते थे –रागालाप ,रूपकालाप ,आलप्तिगान और स्वस्थान नियम का आलाप ।

Raagaallap / रागालाप की परिभाषा –

राग केस्वरों का विस्तार जिसमें ग्रह ,अंश ,मंद्र ,तार ,न्यास ,अपन्यास ,अल्पत्व ,ष।डवत्व और औडवत्व राग के इन दस  लक्षणों  का पालन होता था ,रागालाप कहलाता था ।

Roopkaalaap / रूपकालाप की परिभाषा –

इसमें रागालाप के सभी लक्षणों  का पालन तो होता था ,किन्तु प्रबंध की धातुओ के समान रूपकालाप के खंड करने पड़ते थे जो रागालाप में नहीं होता था । दूसरे ,रागालाप में गायक को आलाप के पूर्व उस राग की व्याख्या करनी पड़ती थी ,किन्तु रूपकालाप में ऐसा करने की आवश्यकता नहीं होती थी ,क्योंकि वह स्वयं शव्द व ताल रहित प्रबंध के समान स्पष्ट तथा विस्तृत होता था । इस प्रकार रूपकालाप को रागालाप की दूसरी सीढ़ी मानी जाती थी ।

Aalaptigan / आलप्तिगान की परिभाषा –

रूपकालाप के बाद आलप्तिगान  का स्थान आता है । इसमें राग के सभी नियमों का पालन तो करते ही थे ,साथ ही साथ तिरोभाव –आविर्भाव भी दिखाया करते थे ।

Swasthana niyam ka aalap / स्वस्थान नियम का आलाप –

प्राचीन समय में आलाप के एक विशेष नियम को स्वथान नियम कहते थे । इसमें राग के लक्षणों को पालन करते हुए आलाप को मुख्य चार हिस्सों में विभाजित कर दिया जाता था जिसे स्वस्थान कहते थे । चारों स्वस्थानों का प्रयोग क्रम से एक दूसरे के बाद होता था । ‘संगीत रत्नाकर ‘ में  इनका वर्णन इस प्रकार किया गया है –

  • प्रथम स्वस्थान में द्वयर्ध स्वर के नीचे के स्वरो में आलाप करना पड़ता था और मंद्र  सप्तक में इच्छानुसार विस्तार किया जा सकता था ।
  • दूसरे स्वस्थान में द्वयर्ध स्वर तक आलाप किया जाता था ।
  • तीसरे स्वस्थान में अर्धस्थित स्वरो में आलाप किया जाता था ।
  • आंतिम स्वस्थान में दो गुण और उसके उपर के स्वरों तक आलाप करने के बाद स्थायी स्वर पर न्यास किया जाता था । इस प्रकार स्वस्थान नियम का आलाप समाप्त होता था । आजकल आलाप के इन 4 प्रकारों में से कोई एक भी प्रचार नहीं होता है ।

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Defination of Nibaddha gaan & anibaddha gaan , aalaptigan,roopkaalaap  in hindi is described in this post.

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