Ang Sanchalan in Kathak in Hindi

Ang Sanchalan in Kathak in Hindi Kathak Shastra Theory

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Ang Sanchalan in Kathak in Hindi Kathak Shastra Theory in Hindi is described in this post . Kathak shastra notes available on saraswati sangeet sadhana

Ang Sanchalan in Kathak in Hindi

अंग संचालन की व्याख्या –

अंग संचालन का अर्थ

प्रत्येक नृत्य शैली में अंग – संचालन का बड़ा महत्व है । नृत्य करते समय कभी पैर चलाते हैं तो कभी हाथ , कभी हाथ – पैर दोनों इसी तरह गर्दन , भाँ , आँख , वक्ष आदि सभी का संचालन होता है । पीछे हाथ के विभिन्न मुद्राओं को समझाया जा चुका है । अब हम शरीर के अन्य अंगों के संचालन पर विचार करेंगे ।

  पैरों का संचालन-

 इसे पाद विक्षेप कहते हैं । इसमें विभिन्न क्रियायें ही नहीं आती , बल्कि घुँघरू का उचित प्रयोग भी आता है । कमर के नीचे पैर में तीन जोड़ हैं- एड़ी , घुटना , जंघा । इन तीनों से पैर को विभिन्न स्थितियों में रक्खा जा सकता है । पैरों की क्रिया को चारी कहते हैं । चारों के 30 प्रकार बताये गये हैं , किन्तु मुख्य दो प्रकार हैं- भूमिचारी और आकाशचारी ।  भूमिचारी में दोनों पैर पृथ्वी पर रक्खे रहते हैं । इसके 16 प्रकार माने आकाशचारी में एक पैर पृथ्वी पर रहता है और दूसरा उठा रहता है । पैरों में घुँघरूओं का प्रयोग भारतीय नृत्य की विशेषता है । इसके द्वारा नर्तक विभिन्न लयकारी दिखाता हुआ लय से खेलता है और श्रोताओं को आनन्दित करता है । लय प्रकृति का विधान है । इसलिये साधारण श्रोता को लय से शीघ्र आनन्द मिलता है । घुँघरु का जितना काम कथक नृत्य में और विशेषकर जयपुर घराने में होता है , उतना किसी नृत्य में और किसी घराने में नहीं होता । घुँघरू द्वारा उचित स्थान पर लयकारी दिखाई जानी चाहिये । पैरों द्वारा ततकार दिखाया जाता है और घुँघरू बँधा होने से सोने में सुहागा सा हो जाता है । रस के अनुसार भी पैरों का संचालन होता है । उदाहरण के लिये शांत और भयानक रसों में पैरों का काम नहीं होता और श्रृंगार रस में पैर और घुँघरू का प्रयोग अधिक होता है ।

नेत्र और भौं संचालन –

नृत्य में नेत्र और भौं- संचालन का बड़ा महत्व है । गर्दन के ऊपर ठोढ़ी , ओठ , गाल , आँख , भौं , नाक का प्रयोग नृत्य में होता है । इनमें नेत्र और भौं का उचित संचालन बड़ा महत्वपूर्ण है । नेत्र के अन्दर पुतली और उसके बाहर पलकें अपना – अपना काम करती हैं । दाहिने – बायें व ऊपर – नीचे करने से पुतली का अभ्यास होता है । भरत ने आठ प्रकार के दृष्टि – भेदों का वर्णन किया है ।

दोनों आँखों के ऊपर कुछ बाल समूह होते हैं जिन्हें भौं कहते हैं । भावावेश में भौं की आकृति अपने आप बदल जाती है । नृत्य में अभ्यास द्वारा उसके संचालन पर अधिकार प्राप्त किया जाता है । कभी दोनों भी को उठाना , कभी केवल एक को उठाना , कभी दाहिना सिरा उठाना , तो कभी बाँया सिरा उठाना आदि क्रियाओं द्वारा भौं का अभ्यास होता है । रसों के अनुसार भी भौं और नेत्र का संचालन बदला करता है । कुशल नर्तक आँखों और भौं द्वारा केवल भाव ही व्यक्त नहीं करते , बल्कि लय – ताल भी स्पष्ट करते हैं । भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र में भौं की सात क्रियायें बतलाई हैं ।

गर्दन और छाती का संचालन-

 नृत्य में भौं और नेत्र संचालन के साथ – साथ गर्दन और छाती का संचालन भी बड़ा महत्वपूर्ण है । कुशल नृत्यकार और शिक्षक इनकी साधना के लिए विशेष अभ्यास कराते हैं । यह कला क्रियात्मक है , अतः इनका संचालन अच्छे गुरू से सीखना चाहिये और हो सके तो अधिक से अधिक समय तक उनके समक्ष अभ्यास करना चाहिये । गर्दन चलाते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि गर्दन में सख्ती न रहे । ऐसा न मालूम पड़े कि गर्दन चलाते समय बहुत अधिक बल लगाना पड़ रहा है । गर्दन में सख्ती आने से माँसपेशियाँ जकड़ जाती हैं और गर्दन का संचालन अस्वाभाविक हो जाता है , इसलिये गर्दन बिल्कुल हल्का रखना चाहिये । ताकत लगाकर गर्दन हिलाना नहीं चाहिये । नृत्य के प्राचीन आचार्यों ने चार प्रकार के ग्रीवा संचालन बताये हैं ।

 छाती का प्रयोग शास्त्रीय नृत्य में बहुत कम होता है , क्योंकि इसके संचालन से श्रृंगारिकता बढ़ती है । छाती ऊपर – नीचे अथवा दायें – बायें हिलाई जा सकती है , किन्तु कम फिल्मी नृत्यों में इसका प्रयोग अधिक होता है , क्योंकि अधिकांश आधुनिक फिल्मों में अश्लीलता के द्वारा जनता का मनोरंजन किया जाता है , किन्तु शास्त्रीय नृत्य में नृत्यकार इस प्रकार की हरकतें करते ही नहीं और जब कभी – कभार करते भी हैं तो मर्यादित रूप में ।

History of Kathak Dance in Hindi & Kathak Ke Gharane is described in this post

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